अपने पचास वर्षों के अनुभव के आधार पर विश्वास से कह सकता हूँ कि भारत में या फिर शायद सारे संसार में विज्ञापन व्यवसाय से जुड़े लोगों की एक जटिल समस्या है और वो है, इस दुनिया में हर व्यक्ति के दो व्यवसाय होना।
जी हाँ, हर व्यक्ति के दो व्यवसाय होते हैं, एक वो, जिससे वो व्यक्ति जुड़ा है, और दूसरा होता है विज्ञापन व्यवसाय। हर व्यक्ति समझता है कि वो विज्ञापन बना सकता है। उसका मानना है कि विज्ञापन आख़िर होता क्या है — सिवाए एक तस्वीर और एक नारे के। तस्वीर खोज लो। एक अच्छा, बुरा या ऊट पटाँग नारा लिख लो, बस, विज्ञापन तैयार है। तभी तो वो विज्ञापन अभियान जिसे विज्ञापन अजेंसियाँ महीनों की मेहनत के बाद तैयार करती हैं, उन्हें उत्पादक स्वयं या उनकी पत्नियाँ या फिर उनके कर्मचारी मिनटों में तहस नहस कर देते हैं।
जो लोग विज्ञापन व्यवसाय से जुड़े हैं और सही मायनों में व्यवसायिक हैं, जानते हैं कि एक नारा और एक तस्वीर तय करने में कितनी छान-बीन करनी पड़ती है। जिस उत्पादन का विज्ञापन करना होता है, उसके बारे में लगभग सब कुछ जानना और समझना पड़ता है। क्यूँकि विज्ञापन व्यवसाय कला भी है और विज्ञान भी, ये कहना भी ग़लत नहीं होगा कि विज्ञापन व्यवसाय कला के इंद्रधनुषी रंगों से सजा विज्ञान है, जहां तर्क भी खोजने पड़ते हैं और उन्हें कला के रंगों से सजाना संवारना भी पड़ता है।
हर अच्छा विज्ञापन उपभोक्ता तक पहुँचने से पहले विज्ञापन एजेन्सी में तीन मुख्य चरणों से गुजरता है। पहले चरण में इस बात का फ़ैसला किया जाता है कि क्या कहना है जबकि दूसरे और तीसरे चरण में ये तय किया जाता है कि कैसे कहना है और कहाँ कहना है।
पहले चरण में, यानी क्या कहना है, में जिस उत्पाद का विज्ञापन करना है उसके गुणों और कमज़ोरियों का उसी समान या उसके प्रतिस्पर्धी की तुलना में अध्ययन किया जाता है और ये मालूम करने की कोशिश की जाती है कि वे कौन से गुण हैं जिनका उल्लेख प्रतिस्पर्धी ब्रांड अपने विज्ञापनों में नहीं कर रहे हैं।
उत्पादक के तौर पर, लिम्का से पहले और अब फिर शीतल पेयों के विज्ञापनों में रंगारंग तस्वीरें का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता है। जब हम लिम्का पर काम करते थे तब हम जान बूझ कर तस्वीरों की जगह इलसटरे्शन का इस्तेमाल किया। उस समय, प्रिंट, सबसे बड़ा माध्यम हुआ करता था। इसके इलावा सारे शीतल पेय रंग जामने की बात किया करते थे। उस समय लिम्का सारे अभियान का आधार प्यास था. हमारा मानना था कि शीतल पेयों का पहला काम होता है, प्यास बुझाना और ज़्यादातर उपभोक्ता प्यास बुझाने के लिए ही पेय ख़रीदते हैं।
इसी को आधार बना कर, विज्ञापन अभियान बना गया था।
इस चरण में क्या कहना है का फ़ैसला होता है।
कैसे कहना है और कहाँ कहना है, दोनों चरण पर साथ-साथ काम होता है क्यूँकि इस बात का फ़ैसला कर लेने के बाद किस प्रकार के उपभोक्ताओं से बात करनी है, ये फ़ैसला करना होता है कि उनसे कहाँ बात करनी है? टी वी पर, रेडीओ पर, डिजिटल मीडिया में या प्रिंट मीडिया द्वारा?
मान लीजिए कि हम आफ्टर शेव लोशन पर काम कर रहे हैं और सर्वेक्षण द्वारा मालूम होता है कि क़स्बों में रहने वाले रईस किसानों में आफ्टर शेव लोशन ख़रीदने की सम्भावना अधिक है। उस स्तिथि में पत्र-पत्रिकाओं की जगह टी वी और डिजिटल मीडिया बेहतर विकल्प होंगे।
इस बात का फ़ैसला हो जाने पर उन माध्यमों के लिए उपयुक्त विज्ञापन अभियान तैयार करने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।
मिसाल के तौर पर आयोडेक्स द्वारा ये तय कर लेने के बाद कि उपभोक्ताओं से कहना है कि आयोडेक्स दर्द भी दूर करता है और अच्छा भी करता है। तीन शब्दों ‘ऊह, आ, आउच’ का चयन किया गया होगा । यही उनके विज्ञापन अभियान के चिन्ह बन गए।