विज्ञापन क्या है? कभी किसी ने अपने एक लेख में चकब्लोर की परिभाषा का उल्लेख किया था. चकब्लोर के अनुसार, “विज्ञापन मानवीय बुद्धि को बस उतनी देर अवरुध्द कर देने की कला है, जितनी देर उसकी जेब से रक़म निकलवाने में लगे।”
इस परिभाषा को अगर पूरी तरह सही मान लिया जाए तो सारे विज्ञापन अभियान केवल दुकानों के आस पास ही चलने चाहिएँ, क्यूँकि ये वही स्थान है जहां उपभोक्ता अपनी जेब से रक़म निकालता है। टी वी पर कोई विज्ञापन देखने के बाद, जेब से रुपये निकाल कर दुकानों की ओर नहीं दौड़ते हैं। मेरी राय में ये परिभाषा सड़कों पर मजमा लगा कर लोगों को मूर्ख बनाने वालों पर ज़्यादा लागू होती है।
आज सभी उत्पादक (जो व्यावसायिक हैं) मानते हैं कि उपभोक्ता कम अक़्ल हस्ती नहीं, बल्कि बुद्धिमान जीव है। इसीलिए वो उसे तर्क द्वारा अपना उत्पादन ख़रीदने और इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित करते हैं।
परिभाषाओं की बात निकली है तो आइए, चंद और परिभाषाओं पर भी एक नज़र डाल लेते हैं। एच जी वेल्स का कहना है “विज्ञापन वैध झूठ का दूसरा नाम है” उनकी ये राय शायद ‘शादी से पहले, शादी के बाद ज़रूर मिलें, खोई हुई ताक़त दुबारा हासिल करें, जवानी की भूल पर ना पछताएँ” जैसे विज्ञापनों पर आधारित होगी। इनकी इस राये के लिए हम विज्ञापन व्यवसायी स्वयं ज़िम्मेदार हैं, क्यूँकि अक्सर हम उत्पादनों के बढ़े-चढ़े झूठे बखान के दोषी होते हैं ।
टॉमस जेफ़रसन के अनुसार, “समाचार पत्रों में केवल विज्ञापन वे सत्य बयान करते हैं, जिन पर भरोसा किया जा सकता है।” ज़ाहिर है जेफ़रसन साहब का वास्ता उन विज्ञापनों से पड़ा होगा जो ईमानदारी के से उपभोक्ताओं को अपनी ओर खींचने का प्रयत्न करते हैं।
ब्रूस बरटन का कहना है “यदि विज्ञापन लोगों से उनकी हैसियत से ज़्यादा ख़र्च करवाता है तो उसे गरिया क्यूँ जाए क्यूँकि लोग शादी करके भी तो अपनी हैसियत से बेहतर जीवन जीने का प्रयत्न करते ही हैं।”
यहाँ सिवाए मज़ाक़ के कोई और तुक नज़र नहीं आती। हाँ, ये ज़रूर सही है कि अगर कोई अपनी हैसियत से बध कर जीने की कोशिश करता है तो इसमें विज्ञापन का क्या दोष? करोड़ों लोग होंगे जो मर्सिडीज़ का विज्ञापन देख कर उसे ख़रीदने और इस्तेमाल करने की इच्छा रखते होंगे लेकिन ख़रीदते वही हैं जिनके जेब में दाम होते हैं।