कालिया 

सेलफोन के ईजाद से बहुत साल पहले, एक काले रोटरी-डायल टेलीफोन के जादुई शक्ति ने मेरे बचपन और अस्सी के दशक में जन्में अन्य बच्चों की कल्पनाओं को ऊँची उड़ान दी थी।

देवाशीष मखीजा, लेखक और फिल्म निर्देशक

कोरोमंडल एक्सप्रेस में हमारे डिब्बे को अलग कर बैंगलोर मेल में लगाया जा रहा था। हमारे डिब्बे को छोड़कर अन्य सभी यात्रियों की यात्रा मद्रास में समाप्त हो चुकी थी । हमारा वाला डिब्बा करीब तीन घंटे से एक ही जगह स्थिर खड़ा था, और उसके दोबारा चलने के इंतज़ार ने मेरी बेचैनी को बढ़ा दिया था । मैंने माँ से हमारा काला वाला टेलीफोन मांगा ताकि मैं नानी को कॉल कर उनसे कुछ गुलाब जामुन भेजने के लिए कह सकूं। “अगर हमारी ट्रेन कभी शुरू नहीं हुई तो हम कभी बैंगलोर नहीं पहुंचेंगे,” मैंने कहा, “और पिंकू सब कुछ चट कर जायेगा ।” अपनी छोटी बेटी के साथ यात्रा कर रही एक मारवाड़ी महिला बगल की सीट पर बैठी थी। माँ को उलझन में देखकर उसने मुझे खुश करने के लिए कुछ पेपर सोप निकाल कर मेरे हांथों में थमा दिया । मैंने पहले कभी पेपर सोप नहीं देखा था। उसने मुझसे कहा, “अगर नानी का नंबर डायल करने पर आपकी उंगलियां साफ नहीं होंगी, तो वह आपको नहीं सुन पाएगी,” और धीरे से मुस्कुराई। दरवाजे के पास वॉश बेसिन में अपने हाथों को साफ करने में मैंने लगभग आधा पैक इस्तेमाल कर लिया । तब तक बोगी नई ट्रेन से जुड़ चुकी थी और हमारी यात्रा फिर से शुरू हो गयी थी । 

कैम्पा-कोला बेचने वाले लड़के को देखकर मैं गुलाब जामुन को भूल ही गया ।

अबोध बचपन में उस काले रोटरी-डायल टेलीफोन को मैं किसी जादू से कम नहीं समझता था। उससे मैं अपने लिविंग रूम में घूमते उस ग्लोब के दूसरे छोर पर बसे चाचा-चाची की आवाज़ें सुन सकता था। मुझे किसी से संपर्क करने के लिए केवल एक जादुई कोड की आवश्यकता थी – पांच अंकों की संख्या। इसलिए मुझे यह मानने में बिल्कुल भी संकोच नहीं हुआ ही कि वह ब्लैक बॉक्स बहुत कुछ करने में सक्षम था। अगर मैं अपनी आंखें बंद कर लेता और एकाग्र हो जाता तो शायद मैं उन लोगों को देख सकता जिनसे मैं बातें करता था। और शायद मैं उन्हें टेलीफोन के नीचे खिसकाकर पत्र भी भेज सकता था। और यह भी कि मैं उसकी मांग अपनी ट्रेन यात्रा पर भी कर सकता था, और नंबर घुमा कर नानी से बात कर सकता था।

लगभग बीस साल बाद मैं जिस विज्ञापन एजेंसी में बतौर कॉपीराइटर कार्यरत था वहां मैंने उस दिन खुद को अपने बॉस के केबिन में बंद कर लिया था क्यूंकि मैंने कसम खायी थी कि जब तक मैं बिहार में सेल-फोन सेवाओं के शुभारंभ की घोषणा करने के लिए एक प्रेस विज्ञापन के लिए एक शीर्षक नहीं लिख लेता, तब तक बाहर नहीं निकलूंगा ।

मुझे उस कमरे में बंद हुए एक दिन से अधिक समय बीत गया था। मेरी समय सीमा बहुत पहले बीत चुकी थी और मैं हताश, कमजोर और बेचैन महसूस कर रहा था। 

तभी दरवाजे पर एक हलकी सी खट-खट हुई और किसी ने फैक्स पेपर नीचे से खिसका दी। उस पर एक मोटा-मोटी खींचे हुए डिब्बे के अन्दर लिखा हुआ था – ‘हमारी प्रतियोगी का अभियान।’ डिब्बे के अंदर मेरे काले टेलीफोन का जाना-पहचाना ग्राफ़िक था। और उसके बगल में, एक बदसूरत हिंदी फ़ॉन्ट में शोले का प्रसिद्ध डायलॉग था: “अब तेरा क्या होगा कालिया?”

उस वक़्त मुझे पता नहीं क्यों अचानक गुलाब जामुन खाने कि इच्छा हुई थी।

(नोट: बैंगलोर बेंगलुरु में बदल गया है, मद्रास चेन्नई हो गया है, और कालिया अब ‘पीरियड’ फिल्म की शूटिंग के लिए मुश्किल से मिलने वाला प्रॉप है)

देवाशीष मखीजा (nakedindianfakir@gmail.com) मुंबई में रहने वाले एक लेखक और फिल्म निर्देशक हैं, जिन्होंने लघु फिल्में ‘अगली बार’ (2015) और ‘तांडव’ (2016), फीचर फिल्में ‘अज्जी’ (2017),  और राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता ‘भोंसले’ (2020) बनाई हैं। मखीजा लघु कहानियों के संग्रह ‘फॉर्गेटिंग’ (2014) और नीव पुरस्कार विजेता उपन्यास ‘ओंगा’ (2021) के लेखक हैं।
(The piece was first published in Vol LVI No 48, dated November 27, 2021, in the Economic & Political Weekly in English, and has been adapted in Hindi by Shillpi A Singh for this blog)

Author: ADnaama

Urdu connoisseur. Adman. Founder of Katha Kathan.

2 thoughts on “कालिया ”

  1. बिलकुल सही इसे पढ़ कर अतीत की यदों में गोता लगा आया हूं 👌

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