आवारा ख़यालात

“चा चा चा” फ़िल्म में मख़्दूम मोहीउद्दीन की नज़्म “चारागर” को कुछ इस तरह गाया गाया था कि उसके मतलब बड़े ही आमियाना से लगते थे. “एक चमेली के मंडवे तले…”

एक नज़्म और उसकी यादें

1968 में हम ने एस एस सी का इम्तिहान पास किया. तब एस एस सी, ग्यरहवीं जमात हुआ करती थी. जी हाँ, हम 11+4 के ज़माने की देन हैं. 10+2+3 दौर की नहीं. आजकल, बच्चे दसवीं पास करने के बाद, अपने पसंद के कॉलेज में दाख़िला पाने की कोशिश में जुट जाते हैं. उन दिनों , बम्बई ( जी हाँ, तब बम्बई ही था.) गिनती के ही कॉलेज थे, स्टूडेंट भी कम ही थे. इसलिए हर किसी को अपने पसंद के कॉलेज में दाख़िला आसानी से मिल जाया करता था. तब बम्बई की आबादी तक़रीबन 55–60 लाख ही थी.
हमारे वालिद तो हमें छोड़ कर इस दुनिया से तब जा चुके थे, जब हम आठ ही साल के थे. अकेले माँ ने पाला था. इसलिए ग़रीब थे, काफ़ी ग़रीब थे हम. आठ बाय दस की खोली मकान था. लेकिन अम्मी हमें पढ़ाना चाहती थीं. अम्मी ने हमें इस्माइल यूसुफ़ कॉलेज में दाख़िला लेने के लिए कहा, उन्होंने 30 रूपये की रक़म (जो उस ज़माने में हमारी अम्मी के लिए बड़ी रक़म थी) दे कर फ़ौरन कॉलेज में दाख़िला कराने को कहा. हम फ़ीस की रक़म ले कर कॉलेज पहुँचे. फ़ॉर्म भरा, फ़ीस और फ़ॉर्म जमा कराया. बस, हो गया, हमारा दाख़िला.
हमारे कॉलेज का कैम्पस बहुत बड़ा था (उस वक़्त कैम्पस का एक चक्कर लगाने में एक घंटा लग जाया करता था). मुंबई में जहां, आज भी ज़मीन के दाम सोने से महँगे हैं, कहते हैं कि आज भी हमारे कॉलेज का कैम्पस बहुत बड़ा है हालाँकि उस कैम्पस पर कुछ और इमारतें बन जाने के बावजूद.
उन दिनों दो ही कोर्स थे. आर्ट्स या साइंस. कामर्स बहुत नया-नया था. कम ही लोग उस तरफ़ का रुख़ किया करते थे. हमने भी आर्ट्स में दाख़िला लिया. अदब से इश्क़ जो था. कॉलेज का पहला दिन बेहद परेशान-कुन था. हम ग्यारहवीं तक उर्दू मीडियम में पढ़ कर आए थे और कॉलेज में आते ही मीडियम बदल कर अंग्रेज़ी हो गया था. हमारे प्रोफ़ेसर क्या पढ़ा रहे थे, हमारी समझ में कुछ नहीं आ रहा था. (हमने ये मुश्किल कैसे आसान की? अंग्रेज़ी कैसे सीखी? इसकी बात किसी और रोज़ करेंगे).
अब दो ही सब्जेक्ट किसी हद तक राहत का बाएस थे. एक उर्दू और दूसरा फ़ारसी.
आज हम अपने उर्दू के एक प्रोफ़ेसर डॉक्टर आली जाफ़री का ज़िक्र कर रहे हैं.
जनाब वक़ार क़ादरी की किताब “दर्शन” में जो ज़िक्र क़ादरी साहब ने डॉक्टर आली जाफ़री का किया है. उसी से आग़ाज़ करते हैं. क़ादरी साहब फ़रमाते हैं “आली जाफ़री साहब अपने अव्वलीन लेक्चर के लिए आए. उजली शक्ल और मुनासिब क़द ओ क़ामत के मालिक, ये साहब, मुझे किसी पुरानी ब्लैक एंड वाइट फ़िल्म के हीरो महसूस हुए.” क़ादरी साहब, मुझसे काफ़ी जूनियर हैं. इस लिए जब उन्होंने जाफ़री साहब को देखा था तब उनकी सेहत का ग्राफ़ उतरना शुरू हो गया था. लेकिन जब उन्होंने हमें जीने का सलीक़ा सिखाया था तब माशल्लाह, सेहतमंद थे. जैसी उर्दू जाफ़री साहब बोला करते थे वैसी उर्दू सुनने को कान तरसते हैं. शेर पढ़ने का उनका अन्दाज़, बड़ा ही दिलनवाज़ था. हमने शेर पढ़ने का हुनर, उन्हीं से सीखा. क़ादरी साहब ने उनसे सुने जिन अशआर का ज़िक्र किया है, वो हम जाफ़री साहब से बरसों पहले सुन चुके थे. क़ादरी साहब ने इन अशआर का ज़िक्र किया है —

ख़ूबरू ख़ूब काम करते हैं
इक निगाह सूं ग़ुलाम करते हैं
वली
दिल के आइने में है तस्वीर ए यार
इक ज़रा गर्दन झुकाई देख ली
मोमिन
कैसे कैसे ऐसे वैसे हो गए
ऐसे वैसे कैसे कैसे हो गए

हम कॉलेज के दिनों में Inter Collegiate Elocution Competitions में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया करते थे. एक बार हमें नए मुक़ाबले में जाना था. नई तक़रीर लिखने का मूड नहीं था. इसलिए पुरानी तक़रीरों के हिस्से मिला कर एक नई तक़रीर लिख ली और जाफ़री साहब को Approval के लिए दे दी.
कुछ देर बाद जाफ़री साहब ने हमें कॉमन रूम में बुलाया और तक़रीर का काग़ज़ वापस करते हुए कहा “मियाँ, इन सारे अल्फ़ाज़ से कान आशना हैं.” हमने अपनी दुम दबाई, काग़ज़ वापस लिया और लौट आए.
कॉलेज मैगज़ीन के लिए हमने एक नज़्म लिखी और जाफ़री साहब को approval के लिए दे दी. जाफ़री साहब क्लास में तशरीफ़ लाए, नज़्म हमें लौटाते हुए कहने लगे “बहर में नहीं है”. हमने कहा “सर, पढ़ कर सुना दूँ”. जाफ़री साहब का जवाब था, “गाई जा सकती है, बहर में नहीं है.”
इसके बाद “अरूज़” की तालीम हमें जाफ़री साहब ने ही दी.

उन्हों दिनों एक फ़िल्म रिलीज़ हुई थी जिसका उनवान था “चा चा चा”. इस फ़िल्म में मख़्दूम मोहीउद्दीन की नज़्म “चारागर” को कुछ इस तरह गाया गाया था कि उसके मतलब बड़े ही आमियाना से लगते थे.
नज़्म कुछ यूँ है—

एक चमेली के मंडवे तले
मैकदे से ज़रा दूर उस मोड़ पर
दो बदन
प्यार की आग में जल गए
प्यार हर्फ़ ए वफ़ा प्यार उनका ख़ुदा
प्यार उनकी चिता
दो बदन
ओस में भीगते, चाँदनी में नहाते हुए
जैसे दो ताज़ा रु ओ ताज़ा दम फूल पिछले पहर
ठंडी ठंडी सुबक-रव चमन की हवा
सर्फ़ ए मातम हुई
काली काली लटों से लिपट गर्म रुख़सार पर
एक पल के लिए रुक गई
हमने देखा उन्हें
दिन और रात में
नूर ओ ज़ुल्मात में
मस्जिदों के मीनारों ने देखा उन्हें
मंदिरों की किवाड़ों ने देखा उन्हें
मैकदे की द्राडों ने देखा उन्हें
अज़ अज़ल ता अबद
ये बता चारगर
तेरीज़ंबील में
नुस्ख़ा ए कीमिया ए मोहब्बत भी है
कुछ इलाज ओ मदावा ए उल्फ़त भी है?
एक चंबेली के मंडवे तले
दो बदन

फ़िल्मी गाना फ़हश सा था, हम गुनगुनाते हुए ख़ुशी ख़ुशी चले जा रहे थे अपनो कैम्पस में. हमें मालूम ना था की हमारे पीछे जाफ़री साहब हैं. उन्होंने हमसे पूछा “मियाँ, इल्म है, ये नज़्म मख़्दूम ने क्यूँ कही थी?” हमने अपनी ला इलमी का इज़हार किया. जाफ़री साहब ने बताया कि जब हैदराबाद में एक नवजवान लड़के और नवजवान लड़की को इसलिए जला दिया गाया था कि वो दोनों अलग अलग मज़हब के होने के बावजूद शादी कर ली थी. उन दोनों को ज़िंदा जला दिया गाया था. उसी जुल्म का सोग मनाने के लिए मख़्दूम ने ये नज़्म कही थी. ये सुनते ही हमारे रोंगटे खड़े हो गए. उस दिन से आजतक जब भी ये नज़्म सुनता हूँ या पढ़ता हूँ तो आँखें भीग ही जाती हैं.

Ek Chameli Ke Mandve Tale ~ एक चमेली के मंडवे तले